श्रीनगर गढ़वाल। पच्चीस वर्ष पूर्व जब उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया,तब पहाड़ के जनमानस की आंखों में उम्मीद की चमक थी-यह विश्वास था कि अब विकास उनके द्वार तक पहुंचेगा,गांवों में रौनक लौटेगी और युवाओं को पलायन नहीं करना पड़ेगा। लेकिन दो दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी यह सपना विकास की मृगतृष्णा बनकर रह गया है। राज्य में योजनाओं का अंबार है, घोषणाओं की भरमार है,और रिपोर्टों में विकास छलकता दिखाई देता है-मगर धरातल पर गांव अब भी वीरान हैं,खेत परती पड़े हैं और सरकारी मशीनें जंग खा रही हैं। उत्तराखंड के सरकारी विभागों की योजनाओं की सूची सुनिए-पिरूल से रोजगार,पिरूल से ऊर्जा,जैविक खाद,मशरूम उत्पादन,सोलर एनर्जी,लैमन ग्रास,जिरेनियम ऑयल,जैट्रोफा बायो डीज़ल,रेशम उत्पादन,फूलों की खेती,सेब मिशन,जड़ी-बूटी विकास,बांस व भीमल रेशा योजना,चाय बागान,फूड प्रोसेसिंग,एग्रीविजन ग्रोथ सेंटर,जैविक खेती,जीरो बजट खेती,हाइड्रोफोनिक खेती,टिशूकल्चर,जल संवर्धन,पर्यटन प्रदेश,आयुष प्रदेश,नाम अनगिनत हैं,दावे भव्य हैं-पर नतीजे नगण्य। योजनाओं पर हजारों करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद आम जन वहीं खड़ा है,जहां 25 वर्ष पहले खड़ा था। राज्य में योजनाओं की कमी नहीं है,कमी है ईमानदार क्रियान्वयन की। जब तक बजट जारी रहता है,शोर सुनाई देता है-योजनाएं बंद होते ही बस बोर्ड और टूटी मशीनें बचती हैं। विकास के नाम पर विदेश भ्रमण,होर्डिंग्स,जागरूकता गोष्ठियां,थ्री-स्टार होटल मीटिंग्स,बायर्स-सेलर्स मीट खूब होती हैं,लेकिन जिन किसानों के नाम पर यह सब होता है,वे आज भी पिरूल,लकड़ी और श्रम से जीवन चला रहे हैं। प्रदेश के 16,793 गांवों में से 3,000 से अधिक गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। ढाई लाख से अधिक घरों पर ताले लटक रहे हैं,और जो कभी आंगन से आवाज़ें आती थीं,वहां अब सन्नाटा पसरा है। सरकारें आंकड़ों के खेल में व्यस्त हैं-मगर पहाड़ के गांवों में विकास शब्द अब व्यंग्य बन चुका है। फर्जी आंकड़ों के आधार पर कई योजनाओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार तक मिले हैं। कई स्वयंसेवी संस्थाएं (एनजीओ) झूठे प्रमाणपत्रों के दम पर सम्मान बटोर रही हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि योजनाओं के नाम पर राज्य के नेता,अफसर,सप्लायर और एनजीओ संचालक ही आर्थिक रूप से समृद्ध हुए हैं-जनता वहीं की वहीं। राज्य में विकास योजनाओं के नाम पर जैट्रोफा बायोफ्यूल,ढैंचा बीज,लहसुन-अदरक बीज,पॉलीहाउस और कोल्ड स्टोरेज घोटालों जैसी कई घटनाएं उजागर हुईं। जांचें भी हुईं,कुछ नाम सामने आए,मगर किसी पर प्रभावी दंडात्मक कार्यवाही आज तक नहीं हुई। हर बार जांच रिपोर्ट फाइलों में दफन हो जाती है और अगली सरकार वही गलती दोहराती है। राज्य बनने के पीछे सबसे बड़ा तर्क था कि अब भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप योजनाएं बनेंगी। लेकिन हकीकत यह है कि आज भी योजनाओं का प्रारूप उत्तर प्रदेश कालीन ढांचे पर ही चलता है। फाइलों में सस्टेनेबल डेवलपमेंट और जैविक प्रदेश के शब्द लिखे हैं,पर धरातल पर किसानों के लिए सिंचाई, बाजार और मूलभूत सुविधाएं अब भी सपना हैं। हर सरकार के साथ कुछ पुराने तथाकथित बुद्धिजीवी सलाहकार बदलते नहीं। वे हर सरकार में जगह बना लेते हैं,चाहे विषय उनका हो या नहीं।
इन्हीं की सलाह पर नीतियां बनती हैं और परिणाम हमेशा वही निकलता है-ढांचा वही,दिशा वही,और परिणाम भी वही। आज आवश्यकता इस बात की है कि चल रही योजनाओं का ईमानदारी से स्वतंत्र मूल्यांकन किया जाए। राज्य की भौगोलिक व सामाजिक वास्तविकताओं के अनुसार योजनाओं में सुधार लाया जाए और क्रियान्वयन में पारदर्शिता स्थापित की जाए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले वर्षों में विकास शब्द सिर्फ सरकारी रिपोर्टों और विज्ञापनों तक सीमित रह जाएगा और आम जन,अपनी उम्मीदों के साथ, विकास की मृगतृष्णा में जीता रहेगा। उत्तराखंड राज्य स्थापना रजत जयंती वर्ष 2025 की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। लेकिन यह भी समय है आत्ममंथन का-क्या हम सच में उन सपनों के राज्य में जी रहे हैं, जिसका वादा 25 वर्ष पहले किया गया था।








